ठाणे - कर्ण हिन्दुस्तानी
महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव घोषित होने के बाद से अब तक सभी राजनीतिक दल अपने निष्ठावान कार्यकर्ताओ का असली चेहरा देख रहे हैं । कल तक जो निष्ठावान का झंडा लेकर घूम रहे थे । वह अब बगावती शंख बजा रहे हैं । राजनीतिक युद्ध की घोषणाएं कर रहे हैं । सत्ता के लालची यह कथित निष्ठावान एक दल से टिकट ना मिलने पर दूसरे दल का दामन थाम रहे हैं । बाप एक दल में बेटा दूसरे दल में । यह सब किस लोकतंत्र में जायज है। बीस बीस साल से विधायक रहे लोग फिर एक बार मैदान में हैं । और तो और राजनीतिक पार्टियां भी ऐसे लोगों को बार बार उम्मीदवारी दे रहे हैं ।क्या यह ठीक है? जनता अथवा दल के अन्य कार्यकर्ताओं के मन की बात सुनी नहीं जाती। यह लोकतंत्र के साथ सबसे घिनौना मजाक है। सालों साल एक ही चेहरा जबरन लादा जाना कहाँ तक उचित है ?
खुद को समाजसेवक बताने वाले यह लोग समाजसेवक ना होकर सत्ता के लालची हैं । कुर्सी के गुलाम यह लोग सालों साल सत्ता सुन्दरी का उपभोग करते हैं । जिससे इनमें घमंड आ जाता है और यह लोग सेवक से शेठ बन जाते हैं । जनता की समस्याओं से ज्यादा इनकी नजर सरकारी तिजोरी पर रहती है। विधायक निधी इनकी नजर से होकर गुजरती है और इनकी जेब का टोल टैक्स भरे बिना निधी आगे बढती ही नहीं है। विकास के नाम पर कुछ नहीं होता और बातें व वादे बडे बडे किए जाते हैं । इन लोगों का व्यवसाय ही राजनीति बन चुका है। जनता को पूछता कौन है ? पहले बाप फिर बेटा अथवा बेटी नहीं तो बीवी को मैदान में उतारा जाता है। यह अघोषित परिवारवाद है। एक ही परिवार में दो दो विधायक और दोनों अलग अलग दलों से। एक बेटा सांसद भी बन जाता है। यह सब लोकतंत्र का हिस्सा नहीं हो सकता। हर दल को अपनी गिरेबान में झाँकना चाहिए। वर्ना इस बार का विधानसभा चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से लोकतंत्र का जनाजा उठाने वाला चुनाव बनकर रह जाएगा।
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